मेरी सोच मेरी कलम से
Wednesday, August 4, 2010
मेरी सोच मेरी कलम से: सावन की बूंदों से
मेरी सोच मेरी कलम से: सावन की बूंदों से: "सावन की बूंदों से रिमझिम रिमझिम वर्षा से, जब तन मन भीगा जाता है, राग अलग सा आता है मन मे, और गीत नया बन जाता है। कोशिश करता कोई शब्दो..."
सावन की बूंदों से

सावन की बूंदों से
रिमझिम रिमझिम वर्षा से,
जब तन मन भीगा जाता है,
राग अलग सा आता है मन मे,
और गीत नया बन जाता है।
कोशिश करता कोई शब्दों की,
कोई मन में ही गुनगुनाता है,
कोई लिए कलम और लिख डाले सब,
कोई भूल सा जाता है।
सावन का मन-भावन मौसम,
हर तन भीगा जाता है,
झींगुर, मेढक करते शोरगुल,
जो सावन गीत कहलाता है।
हरियाली से मन खुश होता,
तन को मिलती शीत बयार,
ख़ुशी ऐसी मिलती सबको,
जैसे मिल गया हो बिछड़ा यार।
गाड-गधेरे, नौले-धारे सब,
पानी से भर जाते है,
नदिया करती कल-कल,
और पंछी सुर में गाते है।
"सावन की बूंदों" का रस,
तन पर जब पड़ जाता है,
रोम -रोम खिल जाता है सबका,
स्वर्ग यही मिल जाता है।
जब तन मन भीगा जाता है,
राग अलग सा आता है मन मे,
और गीत नया बन जाता है।
कोशिश करता कोई शब्दों की,
कोई मन में ही गुनगुनाता है,
कोई लिए कलम और लिख डाले सब,
कोई भूल सा जाता है।
सावन का मन-भावन मौसम,
हर तन भीगा जाता है,
झींगुर, मेढक करते शोरगुल,
जो सावन गीत कहलाता है।
हरियाली से मन खुश होता,
तन को मिलती शीत बयार,
ख़ुशी ऐसी मिलती सबको,
जैसे मिल गया हो बिछड़ा यार।
गाड-गधेरे, नौले-धारे सब,
पानी से भर जाते है,
नदिया करती कल-कल,
और पंछी सुर में गाते है।
"सावन की बूंदों" का रस,
तन पर जब पड़ जाता है,
रोम -रोम खिल जाता है सबका,
स्वर्ग यही मिल जाता है।
दीपक पनेरू
मथेला सदन, तुलसी नगर,
पॉलीशीट, हल्द्वानी।
मथेला सदन, तुलसी नगर,
पॉलीशीट, हल्द्वानी।
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